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उमेश उपाध्याय,पत्रकारिता का एक यादगार अध्याय


ग्वालियर:- स्मृति शेष 

साथी उमेश उपाध्याय जब अपने सपनों का घर बना रहे थे तभी यम के यहां से उनका बुलावा आ गया और वे किसी से कुछ भी कहे बिना चुपचाप चले गए। उमेश का अचानक जाना दिल को भीतर तक दुखा गया। उमेश के साथ न जाने कितनी स्मृतियाँ जुड़ीं हैं ,जो अचानक ही चलचित्र की तरह स्मृति पटल पर उभरने लगती हैं। 

उमेश हम उम्र थे,बल्कि मुझसे उम्र में डेढ़ साल छोटे ही थे ,लेकिन वे मुझसे ज्यादा पढ़े-लिखे और दूरदृष्टि वाले  पत्रकार  थे। उम्र का प्रतिभा से कोई सीधा रिश्ता नहीं है ,उमेश ने  ये अनेक अवसरों पर प्रमाणित किया था। उमेश मथुरा के उपाध्याय  थे, मेरी पत्नी भी उपाध्याय हैं ,इसलिए वे मेरे साथ एक अलग तरह का रिश्ता बनाये रहे। उन्होंने घाट-घाट का पानी पिया लेकिन अपने भीतर का पानी नहीं मरने दिया।उनके स्वभाव में सब कुछ था लेकिन उग्रता बिलकुल नहीं थी  ।  वे भीतर  से बाहर  तक  मिठास  से भरे  हुए  पत्रकार थे। उमेश के कैरियर के बारे में मुझे विस्तार में नहीं जाना। ये सब गूगल पर उपलब्ध है। मै तो उन्हें एक सुसंस्कृत ऐंकर के रूप में ,सधे  हुए सम्पादक  के रूप में और कर्मठ  रिपोर्टर  के रूप में याद करता हूँ। 

मेरा और उमेश का पत्रकारिता  में सफर लगभग एक ही कालखंड का है।  वे दिल्ली में थे और मै दिल्ली से सैकड़ों किमी दूर ग्वालियर में। लेकिन हमारे तार आपस में 1983  से जुड़े थे ,जब मै जनसत्ता के लिए रिपोर्ट करता था। 1988 के आसपास मेरा सम्पर्क टीवी रिपोर्टिंग से हुआ और यहां भी उमेश से सम्पर्क बना रहा ।  वे जिस भी संस्थान,  में रहे उन्होंने हमेशा मुझे याद रखा ।  जब भी ग्वालियर-चंबल से जुड़ी  कोई भी खबर उन्हें बनाना पड़ी ,उन्होंने मुझे साथ लिया। हम दोनों ने उस समय चंबल के बीहड़ों को नापा जब ट्रायपोर्ट का वजन 30  किलो और  कैमरे का वजन भी कम से कम पांच-सात किलो होता था। 

उमेश ने अपनी प्रतिभा और पहुँच से हर उस आसमान को छुआ जिसे वे छूना चाहते थे ।  उन्होंने अपने पत्रकारिता के सफर में बहुत कुछ उंच-नीच देखी लेकिन कभी उसके लिए मन में क्षोभ नहीं पाला। वे हिंदी और अंग्रेजी में समान रूप से दक्ष थे। वे जन सरोकारों की पत्रकारिता के मर्म को समझते थे। उन्होंने पत्रकारिता की पटरी छोड़ी तो रिलायंस के साथ जुड़े लेकिन वहां भी उन्होंने अपनी गरिमा को बनाये रखा। उनके जितने प्रशंसक हैं ,उतने ही विरोधी भी ,लेकिन उनके सामने खड़े होकर विरोध करने वाले कुछ ही लोग हैं। उमेश से अभी बहुत सी उम्मीदें थीं। उनके अभी अनेक सपने थे। वे जितने जिम्मेदार अपने काम को लेकर थे उतने ही परिवार को लेकर भी जिम्मेदार थे। और परिवार की जिम्मेदरियाँ निभाते हुए वे प्रस्थान कर गए। 

हम ग्रामीण  अंचल के पत्रकारों का आकाश और पहुँच सीमित होती है दिल्ली वालों के मुकाबले में। लेकिन उमेश दिल्ली में रहकर भी दिल वाले पत्रकार थे ।  उनकी राजनीतिक विचारधारा जो भी रही हो किन्तु एक मस्तमौला ,शांत ,सुसभ्य पत्रकार के रूप में मै उमेश उपाध्याय को कभी भुला नहीं सकता। उमेश के अचानक जाने से मै स्तब्ध हूँ। मुझे भी अब तमाम ऐसी आहटें सुनाई देने लगीं हैं ,जिन्हें हम सब अक्सर अनसुना कर देते हैं। ईश्वर उमेश को अपनी शरण में रखेंगे ही। हमें उमेश के लिए अलग से कोई प्रार्थना करने की जरूरत नहीं  है। वे ईश्वर के प्रिय थे और ईश्वर उन्हें प्रिय थे। उमेश जैसे पत्रकारों का अभाव हमेशा बना रहेगा। उमेश के परिवार के प्रति मेरी हार्दिक संवेदनाएं। 

@ राकेश अचल

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